History of 18 April: आज ही के दिन शहीद हुए थे तात्या टोपे, पढि़ए उनके जीवन से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

नई दिल्ली।
महान स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे (Tatya Tope) का आज बलिदान दिवस है। 18 अप्रैल को उन्हें फांसी दी गई थी। भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने में उनकी अहम भूमिका रही है। उन्होंने 1857 की क्रांति में अपनी युद्ध करने की नीति से अंग्रेज सैनिकों को खूब छकाया। युद्ध में कभी हार भी मिलती तो वह निराश में नहीं होते बल्कि तुरंत दूसरे युद्ध की तैयारी में जुट जाते। कहा जाता है कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ करीब डेढ़ सौ लड़ाइयां लडीं और इस दौरान उन्होंने दुश्मन के लगभग दस हजार सैनिकों को मार गिराया। इस तरह वे अंग्रेजों की नाक में हमेशा दम किए रहते। आइए जानते उनके जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें-
नाम के पीछे दो कहानी
तात्या टोपे का जन्म 16 फरवरी 1814 को महाराष्ट्र के पटौदा जिले में हुआ था। उनका असली नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। प्यार से सभी उन्हें तात्या कहते थे। हालांकि, इस नाम के पीछे दो कहानियां प्रचलित हैं। पहली, जिसके मुताबिक वे किसी तोपखाने में नौकरी करते थे और वहां लोग उन्हें टोपे कहने लगे। दूसरी कहानी जिसके मुताबिक, बाजीराव द्वितीय ने उन्हें एक टोपी दी थी, जिसे वह काफी शान से पहनते थे, इस टोपी के बाद से उन्हें लोग तात्या टोपे पुकारने लगे। उन्होंने शादी नहीं की थी। बचपन से ही युद्ध और सैन्य कार्यों में रूचि थी। उनके पिता पेशवा बाजीराव के यहां अच्छे पद पर थे। एक युद्ध में बाजीराव को अंग्रेजों से हार का सामना करना पड़ा और राज्य छोडक़र जाना पड़ा। इसके बाद वह उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास स्थित बिठूर में आकर बस गए। उन्हीं के साथ-साथ तात्या टोपे का परिवार भी बिठूर आ गया था।
अंग्रेजों से छत्तीस का आंकड़ा
तात्या ने ईस्ट इंडिया कंपनी में भी काम किया। इसके अलावा, बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी वे तैनात रहे, मगर अंग्रेजों से उनका आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही रहा। तात्या का दिमाग बहुत तेज था। युद्ध से जुड़ी रणनीति वह काफी अच्छी बनाते थे। कई बार हार का सामना भी करना पड़ता, मगर इससे वह निराश नहीं होते। अच्छी बात यह थी कि युद्ध के दौरान अंग्रेज सैनिकों को खूब छकाते और यही वजह है कि कभी दुश्मन सैनिकों के हाथ नहीं लगते।
सैंकड़ों की भीड़ के बीच दी गई फांसी
तात्या ने 1857 की क्रांति के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। दोनों ने साथ मिलकर अंग्रेजों को हराने की रणनीति बनाई और तब सफल रहे। कल्पी और ग्वालियर के युद्ध में वह रानी लक्ष्मीबाई की मदद के लिए आगे आए। खुद तलवार के हमले में घायल होने के बाद भी युद्ध में शहीद हुईं रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार किया। अप्रैल 1859 में एक युद्ध के दौरान वह पकड़े गए। 15 अप्रैल की तारीख थी, जब उनका कोर्ट मार्शल किया गया और उसी में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। वह 18 अप्रैल की शाम थी, जब शाम पांच बजे सैंकड़ों लोगों की भीड़ के बीच उन्हें फांसी दे दी गई। कहा जाता है फांसी के दौरान भी उनका चेहरा दमक रहा था और वे गर्व से भी भरे हुए थे।
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