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Patrika Explainer: जातिगत जनगणना पर चल रही बहस, अब तक क्या हुआ और आगे क्या है उम्मीदें

नई दिल्ली।

पिछले हफ्ते केंद्रीय गृह मंत्री (राज्य) नित्यानंद राय ने लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था, भारत सरकार ने नीतिगत रूप से निर्णय किया है कि जनसंख्या गणना में जातिगत आधार पर सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी और एसटी) को ही शामिल किया जाएगा, किसी अन्य जाति की जनगणना कराने का सरकार का कोई इरादा नहीं है।

दरअसल, इससे कुछ दिन पहले ही बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रहे जीतनराम मांझी जातिगत आधार पर जनगणना की मांग कर चुके थे। उससे पहले, केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले भी इस मांग को जोरशोर से उठा चुके हैं।

आजादी से पहले हुई थी जातिगत जनगणना
बता दें कि आजादी के बाद से यानी 1951 से वर्ष 2011 तक जो जनगणना हुई है, उसमें जातिगत आधार पर सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का आंकड़ा की प्रकाशित किया जाता रहा है। इसमें किसी और जाति के आंकड़े का उल्लेख नहीं हुआ। हालांकि, वर्ष 1931 तक ऐसा नहीं था। तब सभी जातियों के आंकड़े जनगणना में शामिल किए जाते थे। यहां तक कि वर्ष 1941 में भी जातियों के आधार पर जनगणना हुई, मगर आंकड़ा सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का ही प्रकाशित हुआ। तब से यही व्यवस्था चली आ रही है।

मंडल आयोग ने लगाया था 52 प्रतिशत ओबीसी आबादी का अनुमान
बहरहाल, इस तरह की जनगणना के नहीं होने से ओबीसी और ओबीसी के भीतर के विभिन्न समूहों का सटीक अनुमान नहीं लग सका है। इससे पहले, मंडल आयोग ने अनुमान लगाया था कि ओबीसी की आबादी करीब 52 प्रतिशत है। इसके अलावा, कुछ अन्य अनुमान राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित हैं, मगर वे भी पुख्ता नहीं माने जा सकते। राजनीतिक दल विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दौरान अलग-अलग सीटों पर जातिगत जनसंख्या के आंकड़ों का अनुमान लगाते रहते हैं।

यह मांग पहली बार नहीं उठाई जा रही
वैसे जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग पहली बार नहीं है। हर बार जनगणना से पहले इस पर बहस छिड़ती है, जिसमें ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग मांग उठाता है, जिसका उच्च जातियां विरोध करती हैं। हालांकि, इस बार नीतीश कुमार, जीतनराम मांझी और रामदास आठवले के अलावा भाजपा से भी जातिगत जनगणना की मांग उठाई गई है। भाजपा की राष्ट्रीय सचिव पंकजा मुंडे इस साल दो बार यह मांग निजी स्तर पर उठा चुकी है। पहली बार तब जब 8 जनवरी को उन्होंने महाराष्ट्र विधानसभा में एक प्रस्ताव प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से जाति आधारित जनगणना का आग्रह किया और दूसरी बार, गत 24 जनवरी को उन्होंने इस संबंध में एक ट्वीट किया था।

यूपीए सरकार में जातिगत जनगणना को लेकर क्या प्रयास हुए
बीते एक अप्रैल को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी सरकार से जनगणना में ओबीसी का डाटा एकत्र किए जाने का आग्रह किया था। इससे पहले, हैदराबाद के जी. मल्लेश यादव ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की हुई है, जिसमें जाति जनगणना कराए जाने की अपील की गई है। यह याचिका फिलहाल कोर्ट में लंबित है और सुप्रीम कोर्ट ने गत 26 फरवरी को इस संबंध में एक नोटिस भी जारी किया हुआ है।

राजनाथ सिंह ने करीब तीन साल पहले क्या कहा था
वैसे, नित्यानंद राय ने हाल ही में लोकसभा में दिए अपने बयान से पहले गत 10 मार्च को भी इस संबंध में एक बयान राज्यसभा में दिया था। उन्होंने इसमें बताया था कि आजादी के बाद से भारत सरकार ने सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी की जनगणना कराने का निर्णय लिया है, किसी अन्य जाति का नहीं। लेकिन 31 अगस्त 2018 को तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में एक बैठक हुई थी, जिसमें 2021 की जनगणना की तैयारियों की समीक्षा की गई थी। इस बैठक के बाद राजनाथ सिंह ने प्रेस सूचना ब्यूरो को एक बयान जारी कर बताया था कि बैठक में पहली बार ओबीसी पर भी डाटा एकत्रित करने की परिकल्पना की गई है। हालांकि, उनकी यह बात बैठक के मिनट्स में शामिल नहीं की गई।

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मोइली ने भी पत्र लिखकर मनमोहन सिंह से मांग की थी
वर्ष 2010 में कांग्रेस नेता और तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने 2011 की जनगणना में जाति/समुदाय के आंकड़ों को दर्ज करने की मांग की गई थी। इसके अलावा, 1 मार्च 2011 को लोकसभा में इस पर चर्चा हुई, जिसमें गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने इससे जुड़े सवालों पर विस्तृत जवाब दिए थे। इस पूरी चर्चा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मंत्रिमंडल जल्द ही इस पर निर्णय लेगा। बाद में वित्त मंत्री स्वर्गीय प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों के एक समूह का गठन हुआ। कई दौर के विचार विमर्श के बाद यूपीए सरकार ने सामाजिक आर्थिक आधार पर जातिगत जनगणना का फैसला किया।

यूपीए सरकार में कुछ कवायदें जरूर हुईं, मगर जाति आधार पर नहीं
इसके बाद करीब चार हजार 893 करोड़ के स्वीकृत लागत के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी क्षेत्रों में शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की ओर से सामाजिक आर्थिक जनगणना का संचालन किया गया। इसमें जाति आंकड़ों को छोडक़र सामाजिक आर्थिक आंकड़ों को वर्ष 2016 में दोनों मंत्रालयों की ओर से अंतिम रूप देकर प्रकाशित किया गया। जातियों के आंकड़े सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय को सौंप दिए गए। मंत्रालय ने आंकड़ों के वर्गीकरण के लिए नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष अरविंद पनगढिय़ा के नेतृत्व में एक समूह का गठन हुआ। हालांकि, अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि पनगढिय़ा के नेतृत्व वाले इस समूह ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है या नहीं, क्योंकि अभी तक ऐसी कोई रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है।

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संघ जातियों को दर्ज किए जाने के खिलाफ रहा है
इन सबके बीच हाल के दिनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जातिगत जनगणना को लेकर कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन पहले इस विचार का विरोध जरूर किया है। 2011 की जनगणना को लेकर वर्ष 2010 में जब बहस जोरशोर से हो रही थी, तब 24 मई 2010 को संघ के सर-कार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी ने नागपुर में एक बयान में कहा था कि वह श्रेणियों को दर्ज करने के लिए खिलाफ नहीं हैं, लेकिन जातियों को दर्ज किए जाने के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा था कि जाति आधारित जनगणना संविधान में बाबा साहब अंबेडकर जैसे नेताओं की ओर से परिकल्पित जातिविहिन समाज के विचार के खिलाफ है और यह सामाजिक सद्भाव बनाने के लिए चल रहे प्रयासों को कमजोर करेगी।



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