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Patrika Explainer : जुनून, जोश, ट्रेनिंग और सही खानपान से मिलती है कामयाबी

नई दिल्ली। ओलंपिक गेम्स के इतिहास में पहली बार भारत ने पहले ही दिन सिल्वर मेडल जीत कर एक नया कीर्तिमान रच दिया है। आज के इस एक क्षण की कामयाबी के पीछे कई सालों की कड़ी मेहनत और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही विरासत का योगदान है। यदि आप भारत के विभिन्न राज्यों तथा स्पोर्ट्स जगत में उनके द्वारा दिए गए योगदान को देखें तो आप पाएंगे कि जिन राज्यों में स्पोर्ट्स एक जुनून की तरह खेला जाता है, सिर्फ वही स्टेट्स खेल जगत में कुछ अच्छा कर पाते हैं फिर चाहे खेल कोई भी हो।

90 के दशक की शुरूआत में, जब देश के लाखों बच्चे और उनके माता-पिता कॅरियर के रूप में मेडिकल, इंजीनियरिंग, हायर एजुकेशन जैसे सब्जेक्ट्स को चुन रहे थे तब मणिपुर में एक नई शुरूआत हो रही थी। यह शुरूआत थी, लोगों को बताने के लिए कि खेलों में भी कॅरियर बनाया जा सकता है, इसमें भी नाम और पैसा कमाया जा सकता है।

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उसी समय मणिपुर की राजधानी इंफाल में भारतीय खेल प्राधिकरण का केन्द्र खोला गया। इस केन्द्र से पूर्व खिलाड़ियों को जोड़ा गया और राज्य के लोगों को भी इससे जोड़ने की मुहिम शुरू हुई। उन्हें बताया गया कि खेल सिर्फ खेलने के लिए नहीं होते हैं, वरन कुछ कर गुजरने के लिए भी होते हैं। मणिपुरी बच्चों को समझाया गया कि पढ़ाई के अलावा भी एक दुनिया है, जहां वो कुछ कर सकते हैं, कुछ बन सकते हैं।

मणिपुर में बच्चों को यह तय करने का अवसर दिया गया कि कौनसा खेल खेलना है और कौन सा खेल चुनना है। हालांकि किशोरावस्था तक उन सभी को एक पूर्व निर्धारित अनुशासन में रखा गया, विभिन्न स्पोर्ट्स में उनका रुझान बढ़ाने का प्रयास किया गया। किशोरावस्था में आने के बाद बच्चे खुद अपना मनपसंद खेल चुनते हैं और उसमें आगे बढ़ते हैं।

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जब बच्चे किशोरावस्था में आने के बाद अपना मनपसंद खेल चुनते हैं तो उस खेल में उनकी काबिलियत को भी देखा और परखा जाता है। उसी के आधार पर उनके लिए आगे ट्रेनिंग की व्यवस्था की जाती है और उन्हें शारीरिक तथा मानसिक रूप से तैयार किया जाता है। टोक्यो ओलंपिक गेम्स में भारत के लिए पहला सिल्वर मैडल जीतने वाली मीराबाई चानू भी ऐसा ही एक उदाहरण है।

महज 12 वर्ष की उम्र में शुरू हो गई थी ट्रेनिंग
राज्य की राजधानी से दूर एक छोटे से कस्बे नोंगपोक काकचिंग में देश की पूर्व अंतरराष्ट्रीय भारोत्तोलक तथा कोच अनीता चानू ने देखा कि एक 12 वर्ष की उम्र वाली बच्ची भारी लट्ठे उठा रही है। उसके अंदर कोच को एक जुनून और आग दिखी। बस उसी क्षण मीरा की किस्मत बदल गई और वो इस खेल से जुड़ गई। 12 वर्ष की उम्र में जो ट्रेनिंग शुरू हुई, उसका नतीजा आज आ रहा है।

सचिन, पेले और टायसन सभी ने मीरा की तरह बहुत जल्दी ट्रेनिंग शुरू कर दी थी
अधिकतर हम यही देखते है कि बच्चा बड़ा हो जाता है, सब जगह से निराश होकर एक सेक्टर से दूसरे सेक्टर में जाता है और फिर जहां भी जैसा भी मिलता है, उसी को भाग्य मान लेता है। नतीजा केवल उस व्यक्ति की हार नहीं होती वरन हमारी इस मानसिकता की भी हार होती है कि कॅरियर कभी भी बनाया जा सकता है।

कॅरियर बनाने के लिए सबसे अच्छा समय बाल्यावस्था या किशोरास्था है। उस वक्त बच्चा खाली कागज होता है जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। सचिन तेंदुलकर, पेले और माइक टायसन जैसे लोगों ने अपनी किशोरावस्था में ही खेल के लिए जबरदस्त ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया था और उसका नतीजा आज हम सबके सामने हैं। ये तीनों खिलाड़ी पूरे विश्व में अपने-अपने खेल जगत के भगवान कहे जाते हैं।

खान-पान की संस्कृति भी दिखाती है प्रभाव
किसी भी खेल में सफलता पाने के लिए जरूरी है कि खिलाड़ी अपनी फिटनेस का भी ध्यान रखें। उसके शरीर को वो सभी जरूरी न्यूट्रिएंट्स मिलते रहें जो शारीरिक शक्ति देने के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में कैलोरी भी दे सके। इस हिसाब से भी देश के पूर्वोत्तर राज्य अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। वे गेहूं जैसे अनाज की जगह चावल खाते हैं।

चावल उनका नियमित भोजन है और न केवल उनका वरन कोरिया और चीन जैसे देशों में भी चावल एक प्रमुख आहार है। इसे ऊर्जा और कार्बोहाइड्रेट का प्रमुख स्रोत माना गया है। चावल उन्हें पर्याप्त मात्रा में शक्ति और कैलोरी देता है। शायद यह भी एक कारण है कि कोरिया और चीन जैसे देशों के एथलीट ज्यादा कामयाब होते हैं।



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