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किसान बनेगा मर्जी का मालिक या पूंजी का गुलाम!

मुकेश केजरीवाल, नई दिल्ली। लोकसभा और राज्यसभा में खेती और किसानी से संबंधित तीन विधेयक पास होने के बाद दावा किया जा रहा है कि केंद्र सरकार के इस पहल से किसान अपनी मर्जी का मालिक बनेगा। साथ ही दलालों से छुटकारा पाने के बाद उसकी आमदनी बढ़ेगी। लेकिन कुछ राज्यों के किसान और विपक्षी पार्टियां इसका जोरदार विरोध कर रही हैं। आइए हम आपको बताते हैं इन बिलों के पीेछे विरोध की वजह।


तीन बिल कौन से हैं और इनमें क्या है?
1. पहला बिल किसानों को मंडी से बाहर फसल बेचने की छूट देता है। इसे ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य अधिनियम’ नाम दिया गया है। इस अधिनियम के मुताबिक किसान दूसरे राज्यों में भी अपनी फसल बेच सकेंगे।

2. दूसरा बिल देश में कारपोरेट फार्मिंग को मंजूरी देता है। इसे ‘कृषक मूल्य आश्वासन अधिनियम’ नाम दिया गया है। इसके तहत किसान उपज होने से पहले ही उसका सौदा कर सकेगा। ऐसा वह किसी थोक विक्रेता, निर्यातक या बड़ी कंपनी के साथ भी कर सकेगा।

3. तीसरा है आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम। इस कानून में संशोधन कर फसलों के स्टॉक की सीमा को समाप्त कर किया जा रहा है।

वर्तमान में इन बिलों की स्थिति
पहले दो बिल दोनों सदनों में पारित हो गए हैं। ज्यादा विरोध इन्हीं का था। तीनों ही प्रावधान अध्यादेश के तौर पर सरकार पहले ही लागू कर चुकी है।

विवाद के मुद्दे और वजह

1. एमएसपी :प्रावधान नहीं फिर भी आशंका
किसान आंदोलित हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह एमएसपी को ले कर उनका डर है। पीएम मोदी ने रविवार को भी कहा कि एमएसपी की व्यवस्था बिल्कुल समाप्त नहीं होने वाली है। हालांकि, बिल में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन बिल लाने से पहले सरकार ने इस बात पर किसानों को विश्वास में नहीं लिया।

2. मंडी से बाहर खरीद — आजादी या फंदा
सरकार का कहना है कि मंडी की व्यवस्था पहले की तरह बनी रहेगी। किसानों को जहां बेहतर कीमत मिलेगी उसे अपनी मर्जी के मुताबिक फसल वहां बेच सकेंगे। अब बड़ी कंपनियां भी फसल खरीद के लिए आएंगी। लेकिन किसानों को बड़ी कंपनियों पर ज्यादा भरोसा नहीं है। इस अविश्वास की वजह भी हैं। पिछले कुछ वर्षों में खेती में काम आने वाली बीज और कीटनाशक आदि के कारोबार का जम कर कारपोरेटाइजेशन हुआ है। लेकिन इसका फायदा किसानों को नहीं हुआ। सरकार की रिपोर्ट भी बताती हैं कि किसान की लागत लगातार बढ़ी है।

3. कारपोरेट खेती — सबसे बड़ा खतरा
सरकार का कहना है कि इससे खेती में प्राइवेट सेक्टर भी निवेश करेगा। ढांचागत सुविधाएं बढ़ेंगी और सप्लाई चेन मजबूत होगी। लेकिन बड़ी कंपनियों या साहूकारों से ऐसे एग्रीमेंट करने को लेकर किसानों को डर का माहौल है। किसान को अक्सर पैसों की जरूरत होती है। ऐसे में वे औने-पौने दाम पर आने वाली फसल का पहले से समझौता कर सकते हैं। विवाद होने पर छोटे किसान बड़े साहूकारों या कंपनियों के सामने कहां टिक पाएंगे।

4. आढ़तिए — कमीशन जाने का डर
मंडी में किसान अपनी फसल आढ़तियों के माध्यम से बेचते हैं। इनको तय कमीशन मिलता है। किसानों के साथ ही स्थानीय समुदाय में भी ये काफी प्रभावशाली हैं। बदलाव के खिलाफ ये काफी मुखर हैं। सरकार का कहना है कि नए कानून के जरिए वह किसानों को इन बिचौलियों से मुक्ति दिलाने का काम कर रही है। किसानों को डर है कि ये बिचौलिए तो सरकारी निगरानी में काम करते हैं और तय कमीशन लेते हैं, बाहर इन्हें जो नए बिचौलिए मिलेंगे उन पर तो किसी की नजर नहीं होगी।

5. राज्य सरकारें — मंडी से होती है मोटी कमाई
विपक्ष की ओर से आरोप लगाया जा रहा है कि खेती समवर्ती सूची में है। मंडी व्यवस्था राज्य सरकारों के तहत है। केंद्र ने इसमें बदलाव कर संघीय ढांचे को चोट पहुंचाई है। दरअसल, मंडी में होने वाली खरीद पर राज्य सरकारें शुल्क लेती हैं। पंजाब जैसे राज्य 3000 करोड़ तक की मोटी रकम इससे हासिल करते हैं। उन्हें इसके खो जाने का भी डर है।

6. राजनीतिक विरोध — मौका या मजबूरी
कांग्रेस ने भी लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में मंडी कानून को बदलने का वादा किया था। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने रविवार को भी आरोप लगाया है कि कांग्रेस तो इसे खत्म ही करना चाहती थी। जबकि सरकार ने मंडी का विकल्प भी दिया है। उधर, कांग्रेस नेता अहमद पटेल का कहना है कि यह तुलना गधे और घोड़े की तुलना होगी।

7. अकाली — विरोध से ही समर्थन की उम्मीद
इस मुद्दे पर केंद्र सरकार से बाहर हुई भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी अकाली दल पंजाब में बड़ी राजनीतिक चुनौती झेल रही है। विधानसभा चुनाव में नई नवेली आम आदमी पार्टी ने इसे तीसरे स्थान पर धकेल दिया है। कांग्रेस और आप इसका जम कर विरोध कर रही हैं। ऐसे में अकाली दल भी पीछे नहीं रहना चाहती। बिल का विरोध कर रहे जाट-सिख वर्ग को दुबारा साथ लाने की इच्छा भी है।



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