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Mahatma Gandhi : वकील से राष्ट्रपिता बनने तक का सफर, ये है कहानी

नई दिल्ली। दुनियाभर महात्मा गांधी ( Mahatma Gandhi ) सत्य और अहिंसा के पुजारी के नाम से लोकप्रिय हैं। लेकिन देशवासी के बीच में गांधी को राष्ट्रपिता कहते हैं और वो इतिहास के पन्नों में भी इस नाम से अमर हैं। यह उपाधि उन्हें देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की वजह से एक रेडियो प्रसारण में पहली बार मिली थी। आखिर महात्मा गांधी राष्ट्रपिता ( Father of nation ) कैसे बन गए, इसका इतिहास बहुत लंबा है, लेकिन हम आपको कम शब्दों में बताते हैं इसकी पूरी कहानी।

गांधी पर मां का असर ज्यादा

दरअसल, महात्मा गांधी जी का जन्म 2 अक्टूबर, 1859 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। प्रारंभिक परवरिश के बार जब वो दुनियादारी को समझने लगे तो उन पर अपनी मां उनकी मां पुतलीबाई का असर ज्यादा था। वो धार्मिक विचारों वाली आदर्श महिला थीं। यही वजह है कि मोहनदास कर्मचंद गांधी हिंसा के मार्ग पर चल पड़े।

13 की उम्र में हुई शादी

1883 में 13 साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी ( Mohandas Karamchand Gandhi ) की शादी कस्तूरबा मानकजी से हुई थी। कस्तूरबा की उम्र उस समय 14 साल थी। शादी के बाद गांधी सितंबर 1888 से जून 1891 तक लंदन में वकालत की पढ़ाई करने चले गए और भारत लौट आए। यहां उन्होंने 1891 से 93 तक वकालत की।

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नताल प्रांत की घटना टर्निंग प्वाइंट

वकालत की पढ़ाई के बाद 1893 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने चले गए। इसी साल मई महीने में उन्हें उनके रंगभेद ( Apartheid Policy ) के आधार पर ट्रेन के प्रथम श्रेणी से धक्क देकर बाहर निकाल दिया गया था। इस घटना का असर उनके मन मस्तिष्क पर काफी हुआ।

रंगभेद के आधार पर ट्रेन की घटना के असर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता कि 1894 में गांधी ने भेदभाव से लड़ने और भारतीय आप्रवासियों की मदद के लिए नताल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की। अंग्रेजी हुकूमत ( British rule ) के अन्याय के खिलाफ सत्याग्रह शुरू कर दिया। सत्याग्रह पूरी तरह से एक अहिंसक आंदोलन था।

South Africa : नताल से ट्रांसवाल मार्च

सत्याग्रह ( Satyagraha ) के क्रम में 1913 में भारतीय आप्रवासियों को अधिकार दिलाने के लिए महात्मा गांधी ने नताल से ट्रांसवाल तक मार्च का नेतृत्व किया। इस प्रदर्शन में 2 हजार से ज्यादा लोग शामिल हुए थे।

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1915 में लौटे भारत

सच यह है कि गांधी दक्षिण अफ्रीका वकालत करने गए थे, लेकिन ट्रेन की घटना के बाद वकालत के बदले उन्होंने न्याय के खिलाफ अहिंसक संघर्ष में जुट गए। रंगभेद आंदोलन में सफलता मिलने के बाद गांधी 1915 में भारत वापस लौटे। यहां उन्होंने ब्रिटिश शासन के नियमों के खिलाफ एक दिवसीय प्रदर्शन का आयोजन किया, जिसके तहत किसी भी भारतीय को आतंकी के होने के संदेह में जेल में डाल दिया जाता था।

2 साल जेल की सजा

1920 से 24 तक गांधी इंडियन नेशनल कांग्रेस ( Indian National Congress ) के मार्गदर्शक बन गए थे। उन्होंने भारत से ब्रिटिश शासन को हटाने के लिए कई सत्याग्रह, स्वदेशी अभियान चलाए। अहिंसा के साथ असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार किया। इस वजह से उन्हें दो साल जेल में भी रहना पड़ा।

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सविनय अवज्ञा ( Civil disobedience )

अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों को देखते हुए उन्होंने 1930 में गांधी ने दांडी मार्च निकाला और सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया। यह मार्च अंग्रेजी सरकार द्वारा नमक पर टैक्स लगाने के विरोध में था। 24 दिन के इस मार्च में हजारों की संख्या में लोग भाग लिए और खुद से नमक अंग्रेजी कानूनों को तोड़ा।

इसके बाद ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी ( Independence of india ) की मांग करने वह 1931 में इंग्लैंड चले गए। लेकिन यहां ब्रिटिश हुकूमत में भारत को आजाद करने से मना कर दिया और गांधी को अनसुना कर दिया।

छुआछूत को लेकर धरने पर बैठे

इंग्लैंड से लौटने के बाद 1932 में अंग्रेजी सरकार ने गांधी जी को महाराष्ट्र के पुणे की जेल में बंद कर दिया गया था। यहां वे समाज के अंतिम पायदान पर रह रहे लोगों को नई चुनावी व्यवस्था से बाहर करने के खिलाफ धरने पर बैठ गए। गांधी ने अंग्रेजी हुकूमत से समाज के अंतिम पायदान बैठे लोगों के लिए प्रतिनिधित्व आरक्षण जरिए के देने की बात की। इस बात को लेकर गांधी और आबंडेकर के बीच समझौता भी हुआ, जिसे उनके विरोधियों ने कम्युनल अवॉर्ड बताया।

करो या मरो

इस बीच भारत की आजादी को लेकर गांधी का अहिंसक आंदोलन चलता रहा। 1942 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन से आजादी के लिए अहिंसक तरीके से भारत छोड़ो आंदोलन ( Quit India Movement ) की छेड़ दिया। उन्होंने इस आंदोलन का नारा करो या मरो ( do or die ) दिया। यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया। गांधी जी के जेल में भी बंद किया गया।

बापू को नेताजी ने कहा था राष्ट्रपिता

देश की आजादी को लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ( Netaji Subhash Chandra Bose ) भी सक्रिय थे। उन्होंने जर्मनी और जापान की सरकारों से तालमेल स्थापित कर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया था। नेताजी ने पहली बार महात्मा गांधी को 6 जुलाई, 1944 को रेडियो रंगून से 'राष्ट्रपिता' ( Father of Nation ) कहकर संबोधित किया था।

हिंदू-मुस्लिम दंगे और देश का विभाजन

इस बीच गांधी का कारवां बढ़ता गया। 15 अगस्त, 1947 में भारत अंग्रेजी शासन से आजाद हो गया लेकिन देश दो टुकड़ों में बंट गया। आजादी से कुछ महीने पहले ही हिंदू और मुस्लिम के बीच दंगे शुरू हो गए। इन दंगों को शांत करवाने के लिए महात्मा गांधी को अनशन पर बैठ गए। इस बची 30 जनवरी 1948 को उनकी हिंदूवादी नेता नाथू राम गोडसे ने हत्या कर दी और पूरा देश शोकमग्न हो गया।

इस घटना के बाद महात्मा गांधी को लोग बापू कहकर बुलाने लगे। आम भाषा में बापू का अर्थ होता है पिता। और यही से नेताजी की दी उपाधि राष्ट्रपिता जन-जन क पहुंच गया। तभी से वह राष्ट्रपिता कहलाने लगे।



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