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शिव की तपोस्थली: यहां आज भी वृक्ष के रूप में मां पार्वती के साथ विराजते हैं देवाधिदेव महादेव

सनातन धर्म में भगवान शिव को संहार का देवता माना जाता है। वहीं शिव के निवास स्थान कैलाश को धरती की धुरी माना जाता है। आदि पंच देवों में शामिल भगवान शंकर के संबंध में मान्यता है कि उनकी तपोस्थली आज भी देवभूमि उत्तरांचल में मौजूद है। और इसी स्थान से लिंग—के रूप में शिवपूजन की परंपरा सबसे पहले आरंभ हुई।

वैसे तो महादेव के कई तीर्थस्थल हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक ऐसा तीर्थस्थल भी है जो भगवान शिव से आज भी जुड़ी हुई है। यहां तक कि मान्यता है कि कुछ वर्षों पूर्व तक यहां आने वाले हर व्यक्ति की चुटकियों में मनोकामना पूर्ण हो जाती थी, ऐसे में कई बार मन्नत का दुरुपयोग भी होता था, ऐसे में आदि शंकराचार्य के द्वारा ही इस स्थान को कीलित किया गया। ताकि कोई यहां मिलने वाले आशीर्वाद का दुरुपयोग न कर सके।

दरअसल देवनगरी या देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखंड में एक धार्मिक स्थल है, जिसका नाम है जागेश्वर धाम... खास बात यह है कि इस तीर्थस्थल का उल्लेख हमारे पुराणों और ग्रंथों में भी मिलता है।

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जागेश्वर धाम के बारे में मान्यता है कि यह प्रथम मंदिर है जहां लिंग-के रूप में शिवपूजन की परंपरा सबसे पहले आरंभ हुई। कई पुराणों में इस जगह का उल्लेख मिलता है, इस पावनस्थली के बारे में एक श्लोक है...

मा वैद्यनाथ मनुषा व्रजंतु, काशीपुरी शंकर बल्ल्भावां।

मायानगयां मनुजा न यान्तु, जागीश्वराख्यं तू हरं व्रजन्तु।

अर्थात मनुष्य वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग न जा पाए, शंकर प्रिय काशी, मायानगरी (हरिद्वार) भी न जा सके तो जागेश्वर धाम में भगवान शिव के दर्शन जरूर करना चाहिए। मान्यता है कि सुर, नर, मुनि से सेवित हो भगवान भोलेनाथ यहां जागृत हुए थे इसलिए इस जगह का नाम जागेश्वर पड़ा।

मान्यतानुसार, यहां भगवान शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग जागेश्वर मे स्थित है। जागेश्वर को उत्तराखंड का पांचवां धाम भी कहा जाता है। हालांकि इसको लेकर यह भी कहा जाता है कि यह भगवान शंकर के 12 ज्योतिर्लिंग में से एक है, जिसका बोर्ड तक पुरात्तव विभाग द्वारा यहां लगाया गया है। आइए जानते हैं कि क्या है इस पावन धर्मस्थली की गाथा और इस मंदिर की मान्यता?

दरअसल देवभूमि उत्तराखंड के अल्मोड़ा नगर से पूर्वोत्तर दिशा में पिथौरागढ़ मार्ग पर 36 किमी की दूरी पर पवित्र जागेश्वर धाम स्थित है। जागेश्वर की तल से ऊंचाई 1870 मीटर है।

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ऐसे में देवदार के पेड़ मिलने व कई अन्य कारणों से वहीं कई लोगों का मानना है कि यह ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा के समीप जागेश्वर नामक जगह पर स्थित है। जागेश्वर धाम योगेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि जागेश्वर का प्राचीन मृत्युंजय मंदिर धरती पर स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों का उद्गम स्थल है।

पार्वती सहित विराजते हैं यहां...
ऐसी मान्यता है कि देवाधिदेव महादेव यहां आज भी वृक्ष के रूप में मां पार्वती सहित विराजते हैं। देवदार के घने वृक्षों से घिरी यह घाटी एक मनोहारी तीर्थस्थल है। मान्यता है कि भगवान शिव-पार्वती के युगल रूप के दर्शन यहां आने वाले श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित नीचे से एक और ऊपर से दो शाखाओं वाले विशाल देवदार के वृक्ष में करते हैं। यह बहुत प्राचीन पेड़ बताया जाता है।

जागेश्वर धाम के मंदिर समूह में दो सबसे प्रमुख मंदिर हैं, एक श्री ज्योर्तिलिंग जागेश्वर मंदिर व दूसरा विशाल और सुंदर मंदिर महामृत्युंजय महादेव जी के नाम से विख्यात है। जागेश्वर में लगभग 250 छोटे-बड़े मंदिर हैं। जागेश्वर धाम के इस मंदिर में 124 मंदिरों का एक समूह है, जो अति प्राचीन है।

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सबसे विशाल और प्राचीनतम महामृत्युंजय शिव मंदिर यहां के प्रमुख मंदिरों में से एक हैं, कहा जाता है कि इस मंदिर के पास ही कई हजार टन के दो कढ़ाए भी हैं, जिनके नीचे नागों का वास है। इसके अलावा जागेश्वर धाम में भैरव, माता पार्वती,केदारनाथ, हनुमान, मृत्युंजय महादेव, माता दुर्गा के मंदिर भी विद्यमान है। इनमें 108 मंदिर भगवान शिव जबकि 16 मंदिर अन्य देवी-देवताओं को समर्पित हैं। महामृत्युंजय, जागनाथ, पुष्टि देवी व कुबेर के मंदिरों को मुख्य मंदिर माना जाता है। स्कंद पुराण, लिंग-पुराण मार्कण्डेय आदि पुराणों ने जागेश्वर की महिमा का बखूबी बखान किया है।

यहां स्थित नागेश्वर शिवलिंग भगवान शिव के प्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई, मन्नतें हमेशा स्वीकार हो जाती थी, जिसका भारी दुरुपयोग होने लगा। 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य यहां आए और उन्होंने इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। ऐसा माना जाता है कि किसी के लिए मांगी गई बुरी कामना यहां कभी पूरी नहीं होती है। यहां सिर्फ यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।

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श्रीराम के काल से जुड़ा है ये मंदिर!
यह भी मान्यता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के पुत्रों लव-कुश ने अपने पिता की सेना से युद्ध किया था, राजा बनने के बाद वे यहां आए थे। दरअसल लव-कुश अज्ञानतावश किए युद्ध के प्रायश्चित के लिए इस जगह पर ही यज्ञ आयोजित किया था, जिसके लिए उन्होंने देवताओं को आमंत्रित किया था। कहा जाता है कि लव-कुश ने ही सर्वप्रथम इन मंदिरों की स्थापना की थी। वह यज्ञ कुंड आज भी यहां विद्यमान है। रावण, पांडव और मार्कण्डेय ऋषि द्वारा जागेश्वर धाम में शिव पूजन का उल्लेख मिलता है। यहां पांडवों के आश्रय होने के आज भी अनेक मूक साक्ष्य मिलते हैं, हालांकि मंदिर का निर्माण किसने किया इसके बारे में साक्ष्य प्रमाण नहीं मिल पाए हैं।

निश्चित निर्माणकाल के बारे पता नहीं!
जागेश्वर धाम को कोई 1 हजार तो कोई 2 हजार साल पुराना बताता है। लिखित साक्ष्य न होने से भारतीय इतिहास प्रामाणिकता से ज्यादा यह मंदिर अटकलों का शिकार है। मंदिर की दीवारों पर ब्राह्मी और संस्कृत में लिखे शिलालेखों से इसकी निश्चित निर्माणकाल के बारे पता नहीं चलता है। हालांकि पुरातत्वविदों के अनुसार मंदिरों का निर्माण 7वीं से 14वीं सदी में हुआ था। इस काल को पूर्व कत्यूरी काल, उत्तर कत्यूरी व चंद तीन कालों में बांटा गया है।

जागेश्वर के इन मंदिरों का जीर्णोद्धार राजा शालिवाहन ने अपने शासनकाल में कराया था। पौराणिक काल में भारत में कौशल, मिथिला, पांचाल, मस्त्य, मगध, अंग एवं बंग नामक अनेक राज्यों का उल्लेख मिलता है। कुमाऊं कौशल राज्य का एक भाग था। माधवसेन नामक सेनवंशी राजा देवों के शासनकाल में जागेश्वर आया था।

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चंद्र राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटल श्रद्धा थी। देवचंद्र से लेकर बाजबहादुर चंद्र तक ने जागेश्वर की पूजा-अर्चना की। बौद्ध काल में भगवान बद्री नारायण की मूर्ति गौरी कुंड और जागेश्वर की देव मूर्तियां ब्रह्मकुंड में कुछ दिनों पड़ी रहीं। जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने इन मूर्तियों की पुनर्स्थापना की।

नागर शैली से बने मंदिर
जागेश्वर धाम में सारे मंदिर केदारनाथ शैली यानी नागर शैली से बने हुए हैं। अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध इस मंदिर को भगवान शिव की तपस्थली के रूप में भी जाना जाता है। स्थानीय लोगों के विश्वास के आधार पर इस मंदिर के शिवलिंग को नागेश-लिंग घोषित किया गया। इस मंदिर के किनारे एक पतली सी नदी की धारा भी बहती है।

यह एक मनोहारी तीर्थस्थल और यहां की खूबसूरती वाकई देखने वाली है। हर वर्ष यहां सावन के महीने में श्रावणी मेला लगता है। देश ही विदेश से भी यहां भक्त आकर भगवान शंकर का रूद्राभिषेक करते हैं। यहां रूद्राभिषेक के अलावा, पार्थिव पूजा, कालसृप योग की पूजा, महामृत्युंजय जाप जैसे पूजन किए जाते हैं। महाशिवरात्रि पर भी यहां विशेष आयोजन किए जाते हैं और इस अवसर पर यहां पर भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं।



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