विचार मंथन : रामकृष्ण परमहंस और माँ काली

रामकृष्ण भी मरते वक्त कैंसर से मरे। गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि आप, आप कह क्यों नहीं देते काली को, मां को? एक क्षण की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा! तो रामकृष्ण हंसते, कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण ने कहा, तू समझता नहीं। जो अपना किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर आना पड़ेगा, तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है।

 

विवेकानंद ने कहा कि न इतना कहें, इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे जीते जी कि पानी जा सके, भोजन जा सके! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है। तो रामकृष्ण ने कहा, आज मैं कहूंगा। सुबह जब वे उठे, तो बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा, बड़ी मजाक रही। मैंने मां को कहा, तो मां ने कहा कि इसी गले से कोई ठेका है? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है? तो रामकृष्ण ने कहा कि तेरी बात में आकर मुझे तक बुद्ध बनना पड़ा है! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था। और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हूं।

 

फिर रामकृष्ण बहुत हंसते थे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती! रामकृष्ण ने कहा, हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है।



from Patrika : India's Leading Hindi News Portal
Read The Rest:patrika...

No comments

Powered by Blogger.